चिंतन बिंदु - संवत्सर...
बसंत ऋतु का समय जीर्णोद्धार, पुनर्नवीकरण, क्रियाशीलता एवं क्रियात्मकता का होता है। बसंत पंचमी से प्रारम्भ होने वाला यह कालखंड परिवर्तन का समय है। वैसे तो परिवर्तन प्रकृति की एक धीमी गति से निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया है। कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जब प्रकृति में कुछ न कुछ बदलाव न आता हो, परन्तु कुछ विशेष अवसरों पर यह बदलाव ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेता है कि हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं तथा यह हमें स्वतः ही दिखाई देता है। जरा अपने वातायन से, झरोखों से बाहर तो देखिये, शायद आपको आश्चर्य हो कि जब आप कंपकंपाती सर्दी से त्रस्त थे, बाहर, प्रकृति के अंतर्मन में क्या क्या चल रहा था। आप पाएंगे कि वृक्ष, लता और पौधों पर नए कोमल फुटाव आ रहे हैं। पुरानी, जीर्ण पत्तिओं को उन्होंने त्याग दिया है तथा नया सृजन कर रहे हैं। प्रकृति की अद्भुत कार्य प्रणाली के अंतर्गत पुनर्नवीकरण की यह प्रक्रिया वर्ष प्रति वर्ष नियमित रूप से संचालित की जाती है। इसके अंतर्गत सभी वृक्ष इस ऋतु में अपनी पुरानी पत्तिओं का त्याग कर के नवीन स्फुरणों का सृजन करते हुए नव श्रृंगार धारण करते हैं। फूल वाले पौधों में कलियाँ आती हैं तथा वन, उपवन, बाग, बगीचों में रंग बिरंगे फूलों की सुन्दर छटा देखते ही बनती है। इन नव स्फुरणों तथा खिलते हुए पुष्पों से वायु में भी एक उत्साहवर्धक एवं स्फूर्तिदायिनी सुगंध रच बस जाती है। यह सब परिवर्तन प्रकृति में स्वयं ही होते हैं, इनके लिए बाहर से किसी को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। यह सब इसीलिए हो पाता है क्योंकि प्रकृति स्वयं ही पुराने का त्याग कर नए को अपनाने के लिए उद्द्यत होती है। यदि इन परिवर्तनों से हम प्रसन्न होते हैं, निश्चित ही हम सभी को ये परिवर्तन सुखद लगते हैं, न केवल सुखद लगते हैं अपितु हम सभी उत्सुकुता पूर्वक इनकी प्रतीक्षा भी करते हैं, तो क्यों न प्रकृति के इस नियम को हम अपने जीवन में भी अपना लें - जीर्ण (अनुपयोगी) की बिदाई, नवीन का स्वागत। तो यह होता है बसंत !
प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार इसी समय में हम नव वर्ष का उत्सव भी मनाते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नव वर्ष का प्रथम दिवस होता है, जिसे संवत्सर कहा जाता है। भगवान विष्णु के अनेक पवित्र नामों में एक नाम संवत्सर ( विष्णु सहस्रनाम के अंतर्गत क्रम संख्या ९१) भी है, जिसकी व्याख्या इस प्रकार है - वह शक्ति जहाँ से समय की अवधारणा उत्पन्न होती है। इस विषय पर विचार करने पर हम पाते हैं कि समय की अवधारणा केवल और केवल सृजन तथा उससे सम्बंधित परिवर्तन एवं विकास के सम्बन्ध में ही सार्थक है, इसीसे यह निष्कर्ष भी निकालता है कि ब्रह्माण्ड का सृजन और समय का मापन इसी दिन से प्रारम्भ हुआ।
तो, इस नव वर्ष के दिन हम क्या करना चाहते हैं? स्वाभाविक रूप से इस दिन हम सभी गत वर्ष की उपलब्धिओं की समीक्षा तथा आने वाले वर्ष की कार्य योजना बनाते हैं। व्यावहारिक कार्य योजना बनाने में असफल रहने का सीधा अर्थ है जीवन में असफल ही असफल रह जाना। अतः योजना बनाते समय हमें संसाधनों की उपलब्धता का ध्यान रखते हुए लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना चाहिए। योजना की सफलता के लिए योजना के प्रति हमारी प्रतिबद्धता अत्यधिक महत्व रखती है और यह प्रतिबद्धता कहीं बाहर से नहीं, वरन हमारे अंदर से ही आती है।
जब हम आने वाले समय के लिए अपनी योजनाएं बनाएं, तब हम सुनुश्चित करें कि हमारी ये योजनाएं मात्र भौतिक लक्ष्यों यथा उद्योग व्यापार का विस्तार, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ती अथवा कार्यक्षेत्र में विशिष्ट उपलब्धि तक ही सीमित न रहें अपितु हम अपने स्वयं के लिए कुछ आध्यात्मिक एवं समाज सेवा सम्बंधित लक्ष्य भी निर्धारित करें।
जैसा कि आप सभी भली प्रकार जानते ही हैं - आध्यात्मिक क्षेत्र में चरम लक्ष्य होता है ईश्वर की प्राप्ति और इसके लिए हम अनेक प्रकार के व्रत, पूजा, अनुष्ठान आदि करते हैं यथा ठाकुरजी को तुलसी पत्र अर्पण, भाव पूर्वक श्रृंगार, आरती, प्रार्थना करना तथा अन्य। हम धार्मिक पुस्तकों का पठन पाठन, चिंतन मनन तथा श्रवण भी करते हैं। आपने अवश्य ही ध्यान किया होगा कि हर कथा, हर दृष्टान्त, हर प्रवचन का मूल भूत सन्देश एक ही है और वह है समस्त विश्व को अपने आराध्य का ही रूप समझना एवं सभी प्राणिओं की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना।
श्रीमद्भागवतमहापुराण से : |
प्रस्तुत श्लोक (४.२४.३४ ) प्रचेतागणों के साथ भगवान् रुद्र के संवाद से उद्धृत किया जा रहा है। परम भक्त महाराज ध्रुव और महाराज पृथु की वंश परंपरा में राजा प्राचीनबर्हि के एक जैसे रूप और स्वभाव वाले दस पुत्रों का एक ही सामूहिक नाम प्रचेता गण था। पिता ने उन्हें सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए सृष्टि रचना के लिए अपेक्षित सामर्थ्य अर्जित करने के हेतु सभी भाई तपस्या करने के लिए समुद्र की ओर चल दिए। उनकी शुभेच्छा को देखते हुए, उनके प्रयत्न को सरलता पूर्वक सिद्ध करने के लिए भगवान् रुद्र ने मार्ग में उन्हें दर्शन दिए। इस अवसर पर भगवान् रुद्र ने प्रचेतागणों को एक अत्यंत मंगलकारी, कल्याण कारी दिव्य स्त्रोत्र सुनाया ओर उन्हें इसी स्त्रोत्र का जप करने का निर्देश दिया। यह स्त्रोत्र श्रीमद्भागवत के चौथे स्कंध के चौबीसवें अध्याय ( श्लोक संख्या ३३ से ७९ ) में योगादेश नाम से संग्रहीत है।
नमः पङ्कजनाभाय भूत सूक्ष्मेन्द्रियात्मने।
वासुदेवाय शान्ताय कूटस्थाय स्वरोचिषे।।
भगवान् शिव कहते हैं:
आप पद्मनाभ ( समस्त लोकों के आदि कारण ) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र ) और इन्द्रिओं के नियंता, शांत, एकरस और स्वयं प्रकाश वासुदेव ( चित्त के अधिष्ठाता ) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है।
ध्यान साधना - श्री विष्णु सहस्त्रनाम
ध्यान साधना के लिए श्रद्धालु एक शांत, स्वच्छ एवं एकांत स्थान का चयन करें। यहाँ पर किसी भी ध्यानात्मक आसन जैसे कि पद्मासन, अर्ध पद्मासन अथवा सुखासन या वज्रासन में स्थिर हो कर बैठें। जो साधक भूमि पर न बैठ सकते हों, सोफे, कुर्सी अथवा शैय्या पर भी बैठ सकते हैं। धीमी गति में प्राणायाम कर के या स्वांस प्रश्वांस पर ध्यान केंद्रित करते हुए मन को स्थिर करने का प्रयास करें। नीचे दिए गए श्लोक को एक बार पूरा पढ़ें, पुनः प्रत्येक नाम की व्याख्या को ध्यान पूर्वक पढ़ते हुए भगवान विष्णु के उसी रूप के मानसिक दर्शन करें। श्लोक एवं नामों की व्याख्या को याद रखने का प्रयत्न करें।यहाँ पर दी गई भगवान् के नामों की व्याख्याएं सामान्यतः श्रीमद आद्यशंकराचार्य द्वारा रचित शांकरभाष्य पर आधारित हैं; स्थान-स्थान पर अन्य प्रमुख विद्वानों द्वारा की गई व्याख्याओं को भी समाहित किया गया है।
एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम्।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः।। ७८।।
एकः - भगवान् एक ही हैं, अद्वितीय हैं।
किसी भी प्रकार के अंतर या भेद से रहित भगवान् एक ही हैं। विश्व में देखे जाने वाली भिन्नताएं या विविधताएं तीन प्रकार की होती हैं- प्रजाति गत भिन्नता (जैसे हाथी, चींटी, मनुष्य आदि ); एक ही प्रजाति के सदस्यों में व्यक्तिगत भिन्नता (जैसे लम्बा और छोटा पुरुष ) और सदस्य के शरीर के विभिन्न अवयवों की आपसी भिन्नता (जैसे कान, आँख, नाक; इस व्याख्या में एक कोश से दूसरे कोश की भिन्नता का विचार भी किया जाता है )। परन्तु भगवान् इन सभी भिन्नताओं से परे, अपने वास्तविक एकात्म स्वरुप में स्थित सम्पूर्ण विश्व में सम भाव से व्याप्त हैं, इसलिए उनका नाम एकः है - एकमात्र एवं अद्वितीय।
नैकः - भगवान् एक नहीं अनंत हैं।
गत नाम एकः की निरंतरता में आगे कहते हैं: यद्यपि भगवान् एक ही हैं परन्तु अपनी माया शक्ति के प्रभाव से वे अनंत रूपों वाले लगते हैं, इसलिए उनका नाम नैकः है - अनंत रूप धारी परन्तु एक।
सवः - अखिल विश्व के पालनकर्ता, पोषक।
सोमलता के रस - सोमरस की आहुति देकर किए जाने वाले यज्ञ को सवः या सोमयज्ञ कहा जाता है। भगवान् के एक पूर्ववर्ती नाम सोमपो (सोमरस का पान करने वाले ) की व्याख्या में कहा गया है कि महान शक्ति दायक सोमरस भगवान् को अत्यंत प्रिय है। क्योंकि भगवान् विश्वरूप हैं अतः भगवान् का सोमरस भक्षण करने का अर्थ समस्त विश्व का पोषण करना ही हुआ। वास्तव में भगवान् ही अनेक प्रकार कि वनस्पतिओं, अन्न इत्यादि रूपों से स्वयं ही विश्व का पोषण करते हैं अतएव उनका नाम सवः है।
कः - भगवान् मूर्तिमान प्रसन्नता स्वरूप हैं।
'क' की ध्वनि मूल रूप से कुशलता एवं प्रसन्नता की वाचक है। जब हमारा साक्षात्कार किसी आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत प्रसन्नता दायक अद्भुत स्थिति से होता है, तब हमारी भावनाएं इस प्रकार के शब्दों में प्रकट होती हैं- "ईश्वर की क्या ही अद्भुत रचना है!", "आश्चर्यजनक!", "क्या लीला है भगवान् की!" आदि। यहाँ पर "क्या" प्रश्न वाचक नहीं अपितु प्रसन्नता सूचक एवं विस्मय बोधक शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। भगवान् की प्रार्थना करते समय भी हम प्रसन्नता पूर्वक उनके ऐश्वर्य, वैभव, शक्ति सामर्थ्य, कृपालुता, उदारता आदि का गुणगान किया करते हैं और उनकी प्रार्थना करने पर प्रसन्नता ही उत्पन्न होती है। इसलिए भगवान् का नाम कः - मूर्तिमान प्रसन्नता स्वरूप है।
किम् - परम या अंतिम प्रश्न।
सामान्य बोलचाल की भाषा में "किम्" शब्द प्रश्नवाची है। विषय से सम्बंधित अधिकतम जानकारी लेने के लिए इस शब्द का प्रयोग कर प्रश्नों की लम्बी श्रृंखला बनाई जाती है। यदि जिज्ञासु सृष्टि की रचना और कार्यप्रणाली की विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहता है, तो प्रश्नों की इस श्रंखला का अंतिम प्रश्न जो बहुधा अनुत्तरित ही रह जाता है और जिस का पूर्ण उत्तर प्राप्त करने के लिए प्रश्नकर्ता यहाँ वहाँ दौड़ता ही रह जाता है वह ईश्वर की सत्ता से ही सम्बंधित होता है। यहाँ पर किम शब्द को व्यक्तिवाचक संज्ञा - नाम के रूप में प्रयोग किया गया है, इसलिए इसका अर्थ परम या अंतिम प्रश्न लेते हुए इसे भगवान् विष्णु के एक विशेष नाम की मान्यता दी जाती है।
यत् - सनातन एवं आत्मनिर्भर।
यत् शब्द संकेतवाचक है। यह शब्द किसी उपलब्ध एवं स्वतः प्रमाणित वस्तु या व्यक्ति को निर्दिष्ट करता है। ऐसी किसी इकाई के किसी विशेष गुण के आधार पर उसको इंगित किया जा सकता है, जैसे- बड़ा वृक्ष आदि। केवल मात्र ब्रह्म ही सनातन और आत्मनिर्भर इकाई हैं; अन्य सब कुछ तो परिवर्तनशील है और तात्कालिक रूप से अन्य वस्तुओं तथा स्थितियों पर निर्भर भी है। तैत्तरीय उपनिषद् (३/१/१) इस संदर्भ में कहता है- यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते - जहाँ से ये सारे प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यत् शब्द से जिस मूल इकाई का बोध होता है वह परम ब्रह्म परमात्मा ही है अन्य कुछ नहीं।
तत् - जिसका विस्तार होता है।
तत् वह है जिसका विस्तार होता है और जो विशाल है। जो विशाल है और जिसका असीमित विस्तार है, इतना विस्तार है कि वह सर्वत्र व्याप्त है वही तत् ,अथवा ब्रह्म है। यह ब्रह्म भगवान् नारायण से भिन्न नहीं है अपितु स्वयं भगवान् ही हैं। भगवान् कृष्ण कहते हैं-
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।shreemad
(श्रीमद्भगवद्गीता १७/२३)
अर्थात- ऊँ, तत् और सत् - इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदिमें वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है।
पदमनुत्तमम् - जो सर्वोच्च लक्ष्य है।
यह नाम दो शब्दों: पदम् एवं अनुत्तमम् की संधि से बना है। पद अर्थात मान, प्रतिष्ठा, शक्ति एवं अधिकार आदि जो समाज में किसी के प्रभाव को स्पष्ट करता है। अनुत्तमम् अर्थात जो सर्वश्रेष्ठ और महानतम है। प्रस्तुत सन्दर्भ में भगवान् की माया द्वारा रचे गए भ्रमजाल और इसके क्षणिक आकर्षणों के भुलावे से मुक्त होकर परमात्मा या ब्रह्म की अनुभूति करते हुए साधक जिस स्थिति को प्राप्त करते हैं उसे पद समझना चाहिए। क्योंकि ब्रह्म से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए इस पद को प्राप्त करने के बाद साधक को और कुछ भी प्राप्त करने के लिए शेष नहीं रहता है। ब्रह्म को जान लेने वाला साधक स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। इस प्रकार यह पद सर्वश्रेष्ठ और महानतम है। इसी कारण से भगवान् को पदमनुत्तमम कहा गया है।
लोकबन्धुः - सभी के निर्माता होने के कारण भगवान् सभी के बंधु (सम्बन्धी) हैं। वे समस्त विश्व के आधार भी हैं।
इस नाम की व्याख्या कई प्रकार से की जाती है। प्रथम- क्योंकि भगवान् सभी लोकों के रचयिता हैं, इसलिए सभी लोक उनसे बंधे हुए हैं, उनके बंधन में हैं या उन पर निर्भर हैं इसलिए उनका नाम लोकबंधु है - वह जिससे सभी कुछ बंधा हुआ है। दूसरी व्याख्या- सभी प्राणी भगवान् से ही उत्पन्न हुए हैं अतएव भगवान् सभी के पिता हैं। इस नाते भगवान् सभी के सम्बन्धी (बन्धु ) हैं और उन्हें लोकबंधु कहा गया है। तीसरी व्याख्या इस प्रकार है- भगवान् एक वरिष्ठ स्वजन के समान ही विश्व के समस्त प्राणिओं को वेदों एवं अन्य धर्म शास्त्रों के द्वारा धर्मानुसार उचित अनुचित की शिक्षा देते हैं, इसलिए उनका नाम लोकबंधु है। समाज में एक वरिष्ठ और विद्वान् सदस्य का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने स्वजनों को धर्मनुसार उचित अनुचित की शिक्षा दे। वेदों और शास्त्रों के द्वारा भगवान् बिलकुल यही कार्य करते हैं अतएव वे सच्चे अर्थों में लोकबंधु हैं।
लोकनाथः - जो विश्व के सभी क्रिया कलापों का प्रबंधन करते हैं।
इस नाम का पिछला भाग (नाथः) अनेकार्थी है और इस कारण इस नाम की चार विभिन्न प्रकार से व्याख्या की गई है। प्रथम- कामनाओं की पूर्ती के लिए जिनका आवाहन किया जाता है और भक्तजन जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना किया करते हैं वे प्रभु लोकनाथ हैं। द्वितीय- जो विश्व को आलोकित करते हैं, गतिविधिओं का नियमन करते हैं और दुष्कर्मिओं को तपाते हैं वे प्रभु लोकनाथ हैं।तृतीय- जो सत्कर्मिओं को आशीष एवं सुख देने वाले हैं वे प्रभु लोकनाथ हैं।चतुर्थ- जो अखिल विश्व के संरक्षक हैं वे प्रभु लोकनाथ हैं। भगवान् को लोकनाथ इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे ही विश्व के कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं। विश्व के सञ्चालन में वे ही सर्वोच्च और सर्व शक्तिमान परमेश्वर हैं।
माधवः - जो मधु के वंशज हैं।
इस स्तोत्र में माधव नाम पहले भी दो बार आया है और दोनों बार इसकी अलग अलग प्रकार से व्याख्या की गई है। यहाँ पर इसकी व्याख्या इस प्रकार की जाती है- जो मधु के वंश में उत्पन्न हुए। कृष्णावतार में भगवान् विष्णु ने यदुकुल या यदुवंश में जन्म धारण किया। इस यादव कुल में भगवान् कृष्ण के मधु नाम के एक परमप्रतापी और यशश्वी पूर्वज हुए हैं जिनके नाम पर इस कुल को मधु वंश तथा इस कुल के सदस्यों को माधव भी कहा जाता है। इस प्रकार मधु के वंश में जन्म धारण करने के कारण भगवान् को माधव नाम दिया गया है।
भक्तवत्सलः - जिन्हें अपने भक्त अतिशय प्रिय हैं।
भगवान् को अपने भक्त अतिशय प्रिय हैं और इसीलिए उन्हें भक्तवत्सल कहा जाता है। जो सदैव भगवान् का चिंतन करते हैं, भगवान् की पूजा करते हैं, भगवान् की स्तुति करते हैं, उन्हें प्रणाम करते हैं, वे भगवान् के सच्चे भक्त हैं। जैसा श्रीमद्भगवद्गीता (१२/२०) में कहा गया है की भगवान् ऐसे भक्तों से अतिशय प्रेम करते हैं-
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।
अर्थात- जो मेरे में श्रद्धा रखनेवाले और मेरे परायण हुए भक्त पहले कहे हुए इस धर्ममय अमृत का अच्छी तरह से सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
4.
बृज माधुरी |
चैन नहीं दिन रैन परै , जब ते तुम नैनन नेंक निहारे।
भगवान् कृष्ण की एक झलक मात्र पा जाने पर जीव का चित्त कैसा हो जाता है ? एक ब्रज गोपी अपनी दशा सुना रही है : हे ब्रजराज कृष्ण ! जब से इन आँखों से तुम्हें पल भर को देखा है , मुझे दिन रात किसी भी समय जरा भी चैन नहीं मिलता। घर के सारे नित्य प्रति के आवश्यक कार्य तो छूट ही गए हैं समाज की लाज भी छूट गई है। हे मनमोहन ! अब तो आप से बस यही प्रार्थना है कि मुझसे कभी भी अलग न होइए , मुझे अपना लीजिए और सच्चे मन से प्रीति कीजिये तथा इस प्रेम के सम्बन्ध को सदा सर्वदा निभाते रहिए। |
|
5.
| |
|
|
आरती श्री राधा माधव की |
आरती की जै श्री नव नागर की। खंजन नैन बैन रस माते, रूप सुधा सागर की। आरती की जै श्री नव नागर की। पान खात मुसक्यात मनोहर, मुख सुषमा आगर की। आरती की जै श्री नव नागर की। रसिक सखी दम्पति आरती सौं, नैन सैन उजागर की। आरती की जै श्री नव नागर की।
|
0 comments:
Post a Comment